Last modified on 2 जनवरी 2011, at 21:45

शब्द / उमेश चौहान

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:45, 2 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश चौहान }} {{KKCatKavita‎}} <poem> शब्दों का क्या? शब्द तो ढ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शब्दों का क्या?
शब्द तो ढेरों थे,
अर्थ भरे और निरर्थक भी,
जिसकी जैसी ज़ुबान,
उसके पास वैसे ही थे शब्द,

कुछ के शब्दों पर भरोसा ही नहीं था,
किसी को भी,
इसीलिये रखे थे उन्होंने अपने पास बोलने के लिए,
कुछ उधार लिए गए शब्द भी,
कभी टिके नहीं रह सकते थे ऐसे लोग,
अपने कहे गए शब्दों पर,
ऐसे लोगो की वज़ह से ही,
बन चुके हैं कुछ लोग शब्दों के कारोबारी भी,

शब्द उछाले जा रहे हैं सरेआम,
तरह-तरह की ज़ुबानों से,
डराने-धमकाने-गरियाने-बरगलाने के लिए,
अख़बार के पन्नों से भी गायब हो रहे हैं वे शब्द,
जिन पर किया जा सके अब कुछ भरोसा,

शब्दों का क्या ?
शब्द तो पत्थरों की तरह बेज़ान हो चले हैं आजकल,
उनका इस्तेमाल किया जा रहा है बस,
किसी न किसी का माथा फोड़ने के लिए ।