आलंबन, आधार यही है, यही सहारा है
कविता मेरी जीवन शैली, जीवन धारा है
यही ओढ़ता, यही बिछाता
यही पहनता हूँ
सबका है वह दर्द जिसे मैं
अपना कहता हूँ
देखो ना तन लहर-लहर
मन पारा-पारा है।
पानी-सा मैं बहता बढ़ता
रुकता-मुड़ता हूँ
उत्सव-सा अपनों से
जुड़ता और बिछुड़ता हूँ
उत्सव ही है राग हमारा
प्राण हमारा है ।
नाता मेरा धूप-छाँह से
घाटी टीलों से
मिलने ही निकला हूँ
घर से पर्वत-झीलों से
बिना नाव-पतवार धार में
दूर किनारा है ।