Last modified on 5 जनवरी 2011, at 21:56

सृजन / श्याम कश्यप

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:56, 5 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्याम कश्यप |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> क्या गढ़ रहे हो …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या गढ़ रहे हो
ओ लुहार
मेरे तन की
इस भट्टी में
कच्चा लोहा ढल रहा है

पुलटस के नीचे
जैसे पकता है घाव
धीरे-धीरे
लहू की आँच में सिकता हुआ

इस कोख में
मिट्टी का अस्तर लगा है
जड़ें धरती में दूर तक
गई हुई हैं गहरी
अनंत-असंख्य जड़ों के साथ गुँथी हुई ।