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जब प्रेम / विमलेश त्रिपाठी

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नींद के साथ अभी-अभी रात का जादू टूटा है
सूरज मुझे नरम हाथों से सहला रहा है
और मेरे दोनों हाथ
पलाश की पंखुडी में अटके
एक मोती की अभ्यर्थना में उठ गए हैं
 
सुबह की सफ़ेद झालर से छिटका
रोशनी का एक कतरा
मेरी चेतना में टपका है
और मेरी बासी देह
एक असीम शक्ति से फैलती जा रही है
 
एक दूधिया कबूतर
आकाश की नीलिमा को पंखों में बाँधने
उड़ान भरता है
साथ उसके उड़ता मैं
दिगंत में अदृश्य हो जाता हूं
 
मंत्रों की सोंधी वास धीरे-धीरे
मेरे मन के उलझे रेशों को गूंथ रही है
और सदियों से दुबका एक स्वप्न
चारों ओर उजाले की तरह फैल रहा है
 
ज़मीन सोनल धूप में उबल रही है
आहिस्ता-आहिस्ता
पृथ्वी के बचे रहने की गंध में
पूरा इलाका मदहोश है
 
हो रहा यह सब मेरे समय के हिस्से में
कि जब प्रेम एक पूरा ब्रह्मांड
और मैं
इस होने का
एकांत साक्षी...