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क़तआत / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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क़तआत


बिखरे पड़े हैं बेर ज़मीं पर हरे हरे
बेरी की डाल किसने हिलाई है कौन है
अन्याय किसने नन्हें फलों पर किया है ये
दुर्गत भला ये किसने बनाई है कौन है


चाँद सा चेहरा तेरे चहरे को मैं कैसे कहूँ
क्यों कि तू है आदमी, और आदमी है बेमिसाल
ये जो सूरज है, नहीं कुछ आदमी के सामने
आदमी इश्वर की रचना में है सबसे बाकमाल


चन्द्रमा पर तू बाद में जाना
पहले धरती बदल समाज बदल
सुन समय की पुकार सुन ऐ 'रक़ीब'
कल की मत सोच आज, आज बदल


दर हकीक़त आदमी का फ़र्ज़ है
आदमी को रब से डरना चाहिए
माँ की इज्ज़त है ज़रूरी दोस्तो
बाप का आदर भी करना चाहिए


दूर से देखते ही रोज सलाम
उसकी ख़िदमत में अर्ज़ करता हूँ
कोई लेता नहीं सलाम न ले
मैं अदा अपना फर्ज़ करता हूँ


एक हो जायेंगे इक दिन जहनो - दिल जुड़ जायेंगे
और मुसाफिर अपने-अपने मोड़ पर मुड़ जायेंगे
बालो - पर भीगे हुए हैं, सूख जाने दो जरा
पेड़ पर बैठे परिंदे , खुद-ब-खुद उड़ जायेंगे


गाल गुलाबी, बाल सुनहरे, और अदा में भोलापन
मेरे साक़ी की आँखें हैं नीली नीली थोड़ी सी
अर्ज़ करूँ क्या तुमसे लोगो, मैं कोई मयनोश नहीं
साक़ी की बातों में आकर, मैंने पी ली थोड़ी सी


हादसों से खुशी हादसों से है ग़म
हादसों से भला कौन है बच सका
हादसों में घिरी ही रही जिन्दगी
जिसमे तू बन के आई बड़ा हादसा


हम भी बहुत गरीब हैं, तुम भी तुम भी बहुत गरीब
शायर ने हँस के ये कहा इक दिन अदीब से
मजबूर हो के करते हैं इजहारे-हाले-दिल
हम क्या करें हैं हमको, मोहब्बत 'रक़ीब' से


इन्सानियत की आँखों से आँसू निकल पड़े
ज़ुल्मों - सितम की देश में बरसात देखकर
रोता है बात करने से पहले वो आदमी
आया है जो भी हालते गुजरात देखकर


जिस्म दो हैं मगर एक है ज़िन्दगी
ग़म भी दोनों का इक, दोनों की इक खुशी
मैं हूँ एक चाँद आकाश पर प्यार के
और तू है मेरी जाँ मेरी चांदनी


लहू से सींचती है, दूध, माँ जिसको पिलाती है
बड़ा होकर वो बच्चा, माँ का क्यों आदर नहीं करता
सबब इसका है कुछ माहौल, और कुछ परवरिश उसकी
जो माँ के सामने अपना, वो नीचा सर नहीं करता



माँ को मौसी, मौसी को माँ कहिये तो कोई बात नहीं
माँ के मरने पर बच्चे को मौसी पाला करती है
ममता से भर देती हैं मन खाला हर इक बच्चे की
कोई नहीं कर सकता ख़िदमत जितनी खाला करती है


मुफलिसी का तजकरा करता है क्यों हर बात पर
शुक्र कर, तू जो भी है, जैसे भी हैं हालात पर
एक दिन तक़दीर सँवरेगी तेरी भी ऐ 'रक़ीब'
नेकनीयत और भरोसा रख ख़ुदा की जात पर


नित नये अन्दाज से ये जिस्म अपना बेचने
शाम हो जाते ही आते हैं सभी फुटपाथ पर
दोष इनका कुछ नहीं है ये तो है क़िस्मत का खेल
कोई महलों में हुआ पैदा कोई फुटपाथ पर


न्याय कीजेगा तो ये अन्याय ख़ुद मिट जाएगा
स्वर्ग बन जाएगा भारत और भारत की ज़मीं
प्यार की बारिश से हो जाएंगे सब ठंढे दिमाग़
आग नफ़रत की न भड़केगी न भड़केगी कभी


पिन खोली और मुँह में दबाई
हाथ उठाए सँवारे बाल
खेल हवा ने खेला था जब
बिखर गए थे सारे बाल


रामायन, गीता और बायबल
गुरु ग्रन्थ यहाँ कुर-आन यहाँ
क्यों आग लगी चारों जानिब
हर्फे - नफ़रत लिक्खा है कहाँ


सवेरे के सूरज की पहली किरन तू
दिया है मुझे तू ने अपना उजाला
तेरे हुस्न पर शे'र कहता रहूँगा
तेरा हुस्न है हर हसीं से निराला


सीने पर जो हाथ रखा तो
जल गयी हर इक रेखा
हाथ दिखाया ज्योतिष को तो
ज्योतिष ने क्या देखा


शबनमी शब में चांदनी निखरी
ग़म के साये में हर ख़ुशी निखरी
मौत का शुक्रिया 'रक़ीब' के वो
याद आयी तो ज़िन्दगी निखरी