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भिखारिन / केदारनाथ अग्रवाल

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धँसी-धँसी आँखों से
धुआँ-धुआँ-धुआँ दिए
थके हुए पाँवों से चलती है
झुकी-झुकी
जीवन का अंत छोर खोजती
द्वार औ’ दुकानों की ड्योढ़ी पर
पेट से पुकारती
सड़ी-गली भीख मिली
खाती है
मरी-मरी बोलती
दुनिया के दानव पर
हँसती है
कभी-कभी रोती है
कहीं नहीं होती है
देश की व्यवस्था में
दीन-हीन वर्तमान भोगती

रचनाकाल: १८-०९-१९७६, मद्रास