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अकाल / अनिल जनविजय


अकाल

जब आता है

अपने साथ लाता है

अड़ियल बैल से बुरे दिन


अकाल भेद नहीं करता

खेत, पेड़, पशु और आदमी में


बाज की तरह आकाश से उतरता है

हरे-भरे खेतों की छाती पर

फसल को जकड़ता है पंजों में

खेत से खलिहान तक सरकता है


अँधेरे की तरह छा जाता है

लचीली शांत हरी टहनियों पर

पत्तियों की नन्ही हथेलियों पर

बेख़ौफ़ जम जाता है

जड़ तक पहुँचने का मौका ढूँढ़ता है


बोझ की तरह लद जाता है

पुट्ठेदार गठियाए शरीर पर

खिंचते हैं नथुने, फूलता है दम

धीरे-धीरे दिखाता है हाथ, उस्ताद


धुंध की तरह गिरता है

थके हुए उदास पीले चेहरों पर

लोगों की आँखों में उतर आता है

पेट पर हल्ला बोलता है, शैतान


जब भी आता है

लाता है बुरे दिन

कल बन जाता है अकाल


1981 में रचित