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यह-दैहिक / केदारनाथ अग्रवाल

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यह-
दैहिक,
दोलन-उत्तोलन
महिलाओं का
लोक-मंच पर;-
आदिम,
जैविक,
इंद्रियबोधी
यह उत्सर्जन;-
विषयातुर
अंगों की थिरकन,
लगातार
पदचाई
चंचल गमनागमनी;-
घूम-घुमौवल,
झूम-झुमौवल,
आवेशी
उद्रेकी नर्तन,
मुझे न भाया-
मैंने इसमें
युग यथार्थ का
द्वन्द्व
और संघर्ष न पाया।
मैंने
इसमें
कर्मशील
कर्तव्य-परायण
लोक-मंगलाचार न पाया।

मैंने
इसमें
जो भी पाया
वह तो
केवल
महिलाओं के
हाड़-मांस का
अर्पण और समर्पण पाया,
नहीं आत्म आमोदन पाया,
नहीं चेतना का संप्रेषण पाया।

रचनाकाल: २४-०१-१९९२