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धरती घूमी / केदारनाथ अग्रवाल

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धरती घूमी,
छिपा ओट में सूरज!

सूर्यमुखी अब
सूर्य-विमुख
हो गई धरा।

रात हुई,
मैं लेटा,
बंद अकेले कमरे में
बल्ब बुझाकर सोया,
आई नींद।

मैंने,
सपने की दुनिया में,
सूर्यमुखी दिन
फिर से देखा!

चकित,
चमत्कृत किया
चेतना ने फिर मुझको

सम्मुख देखा;
वह पहाड़ भी
सिंह-पुरुष की तरह खड़ा है,
मंदिर के भीतर का घंटा
गरज रहा है!
पेड़ हरे हँसते लहराते
स्वाभिमान से खड़े हुए हैं,
प्राकृत छवि का
काव्य-पाठ-सा करते।

भावावेशित
पवन प्रहर्षित
प्रवहमान है!

शब्द-शब्द के प्रेम-पखेरू,
स्वर-ध्वनियों के पंख पसारे,
उड़ते-उड़ते चहक रहे हैं
दूर, नदी के तट पर पहुँचे
जल-प्रवाह में तैर रहे हैं!

माटी के आमोद अंक का
यह उत्सव है,
जीवन के वंदन का उत्सव!
इस जीवन-वंदन उत्सव से
मुदित हुआ मैं!

सब कुछ प्रिय है-
मनमोहक है,
किंचित् कहीं कचोट नहीं है!

यही सृष्टि है
शुभ सुषमा की-
मानवबोधी मानवधर्मी-
परम प्रेरणा-दायक, अच्छी!
मैं, बूढ़ा भी, रहा न बूढ़ा,
आयुष्मान कुलकता हूँ,
ऐसे दुर्लभ दिन के साथ,
आगे भी,
ऐसे ही दुर्लभ दिन जीने को!

रचनाकाल: १९-१०-१९९१