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वाह पाटलिपुत्र ! / नागार्जुन

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रचनाकार: नागार्जुन

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क्षुब्ध गंगा की तरंगों के दुसह आघात...

शोख पुरवइया हवा की थपकियों के स्पर्श...

खा रही है किशोरों की लाश...

--हाय गांधी घाट !

--हाय पाटलिपुत्र !

दियारा है सामने उस पार

पीठ पीछे शहर है इस पार

आज ही मैं निकल आया क्यों भला इस ओर ?

दे रहा है मात मति को

दॄश्य अति बीभत्स यह घनघोर ।

भागने को कर रही है बाध्य

सड़ी-सूजी लाश की दुर्गन्ध

मर चुका है हवाखोरी का सहज उत्साह

वह गंगा, वाह !

वाह पाटलिपुत्र !


(1957 में रचित)