मेरे गृह से सुन पडती गिरि-वन से आती
हँसी स्वच्छ नदियों की, सुन पडती विपिनों की,
मर्मर ध्वनियाँ, सदा दीख पड़ते घरों से
खुली खिड़कियों से हिमगिरि के शिखर मनोहर,
उड़-उड़ आती क्षण- क्षण शीत तुषार हवाएँ,
मेरे आँगन छू बादल हँसते गर्जन कर,
झरती वर्षा, आ बसंत कोमल फूलों से,
मेरे घर को घेर गूँज उठता, विहगों के दल
निशी दिन मेरे विपिनो में उडते रहते ।
कोलाहल से दूर शांत