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नंदिनि-1 / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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किए रहो पलकों की छाया उसके ऊपर !
बैठे रहो धरे उसको नयनों में भरकर !
उसके चारों ओर घूमकर करुण स्वरों में
भर कोई स्वर्गीय व्यथा अपने अधरों में
गाओ, हे, पीड़ित लहरों-सी टूट-बिखरकर
किए रहो पलकों की छाया उसके ऊपर !

हुए अपरिचित वे चिर-परिचित स्थान प्रणय के !
होने अब कुछ और-और ही भाव हृदय के !
टूटे वृक्ष हमारे अब पृथ्वी के ऊपर,
जाने किसकी मधुर प्रीति के साथी सुंदर
खड़े हुए ये वृक्ष देखते हमें सदय से,
हुए अपरिचित वे चिर-परिचित स्थान प्रणय के !

बस, दर्शन ही तो माँगा था मेरी आँखों ने !
एक स्पर्श ही तो माँगा था इन बाँहों ने !
तुम्हें लगा छाती से सर-आँखों पे धरना
चाहा था मैंने उर ही तो तुमको देना !
हार ! सुखी ही होना तो चाहा था मैंने,
बस, दर्शन ही तो माँगा था मेरी आँखों ने !

कोई और बिताता है मेरे जीवन को !
कोई और लुटाता मेरे संचित मन को !
कोई और कह रहा मेरे सुख वे अपने,
कोई और देखता इन नयनों के सपने !
प्यार और कोई करता मेरी गुँजन को !
कोई और बिताता है मेरे जीवन को !

डूब रहा है शशि, यह बादल टपक रहा है !
मरु देश में प्यासा निर्झर भटक रहा है !
मरता है यह हँस करुण ध्वनि करता नभ में,
मरती कली, दिन भौरों के व्याकुल रव में !
भरे कंठ में प्राणों का कण अटक रहा है,
डूब रहा शशि, यह बादल टपक रहा है !

नव-बसंत मैं ही तेरे तरु का झरना था !
मुझको इस उठते यौवन में ही मरना था !
जब सोए थे सुख से पृथ्वी के सब प्राणी,
गहन निशा में जब न कहीं भी कोई वाणी,
मुझे शून्य पथ पर तब यूँ आहें भरना था !
हाय, मुझे इस उठते यौवन में मरना था !