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प्रेम-1 / अरुण देव

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एक काँपती हुई आवाज़
जलने से पहले जैसे दीये की लौ थरथराती है
रौशनी का एक वृक्ष छिपाए हुए

धीरे से कह गई अपने प्रेम को

पीड़ा से पीड़ा के बीच की इस यात्रा में
न जाने कहाँ थी सुख की वह सराय
अन्तहीन रेगिस्तान में
न जाने कहाँ थी वह छाँव
जिसके लिए निकल ही पड़ी थी वह एकदम

यह सबसे सुन्दर शब्द था
सबसे कठिन अभिव्यक्ति

और यह आवाज़ काँप रही थी
इन दिनों भी ।