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सीप-1 / चंद्रसिंह बिरकाली

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सीप-१
विदा लेते हुए
रात ने उषा से कहा-
कल यहीं, अच्छा ।
उड़ती हुई उषा ने
सूरज से सुना-
कल यहीं, अच्छा !
आंखों से ओझल होते
सूरज से
अंत में सांझ ने वचन लिया
कल यहीं, अच्छा !


सीप-२
डालों से लगे हरे-हरे पत्ते
एक दूसरे के सामने देख
चंचल हुए
एक दूसरे से
मिलने के लिए ललचाए
अपनी-अपनी जगह स्थिर
सूखे पत्ते
दूर-दूर से आकर
एक दूसरे से गले मिल रहे हैं,
साथी ! आओ झरें......


सीप-३
अंधेरे से उजाले में आते ही
बच्चा रोया
इससे जीवन का अर्थ लगा
लोग हंसे,
धीरे-धीरे देखा देखी
वही बालक उजाले का आदी हो गया
एक दिन अचानक
अंधेरा आते देख
वही बालक
उजाले के लिए रोने लगा ।


सीप-४
तपे हुए तकुए सी तेज
सूरज की किरणों की लौ
अपने गले से उतार
कलेजे में छाले उपाड़
दिन भर धूनी रमा
रात को अमृत बरसाया
उस चांद को
लोगों ने चोर बताया ।

अनुवाद : मोहन आलोक