Last modified on 31 जनवरी 2011, at 05:59

यात्री / प्रेमजी प्रेम

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:59, 31 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमजी प्रेम |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>मैं और तू सुपर …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं और तू
सुपर डीलक्स मोटर के
यात्री जैसे
दिन निकलते ही
पीछे-पीछे भाग रहे हैं
तेरी खिड़की से तू
मेरी खिड़ाकी से मैं
झांक रहे हैं बाहर ।

सुबह
मेरी खिडकी से
ललाई लिए
ऊपर आया था सूरज
अब तुम्हारी खिडकी में
हार-थक कर
उतर रहा है नीचे ।

आ मित्र , आ
सूरज का चढना-उतरना
देखना छोड़, जरा बतियाएं ।

बता, तू कौन है ?
कहां जा रहा है ?
कहां से आया है ?
सांझ का समय हो चला है
मौन तोड़े ।

लेकिन, पहले तू बोल ।
बोलने से ही पता चलेगा
सुपर-डिलक्स बस में
सुपर तू है या फिर मैं
जल्दी से बोल
उजाला कम होता जा रहा है।

अनुवाद : नीरज दइया