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आतंक / अम्बिका दत्त

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जब, कुत्तों ने सूंघ लिया था
सन्नाटे में तैरता-खतरा
खड्-खड् बजने लगे थे
हवा के हिलने से
जमीन पर पड़े पत्ते
चलते-चलते/शरीरवत्
हो गई थी मेरी परछाई
गरदन घुमाकर पीछे देखते भी
घबरा रहा था मैं

बजबजा कर उतर पड़ा था-वह
शाम को ही - कस्बे के बाजार पर
उदास सी सिमट गई रोशनी
बिजली के खम्भों के आस-पास
तब-अपने घर के किवाड़ बन्द किये
पीली लालटेन के कन्धों से
मैं अकेला ढो रहा था
बहुत सारा अँधेरा
अकेला था - मैं नितान्त अकेला।