जिन आँखों को तुम ने गहरा बतलाया था
उन से भर-भर मैंने
रूप तुम्हारा पिया ।
जिस काया को तुम रहस्यार्थ से भरी बताते थे
उस के रोम-रोम से मैंने
गान तुम्हारा किया ।
जो प्यार- कहा था तुम ने ही- है सार-तत्त्व जीवन का,
वही अनामय, निर्विकार, चिर सत्त्व
मैंने तुम्हें दिया ।
यों
तुम से पायी ज्योति-शिखा के शुभ्र वृत्त में
मैंने अपना
पल-पल जलता जीवन जिया :
पर तुम ने- तुम, गुरु, सखा, देवता !-
तुम ने क्या किया !