Last modified on 2 फ़रवरी 2011, at 19:13

एक चिकना मौन / अज्ञेय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:13, 2 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक चिकना मौन
जिस में मुखर-तपती वासनाएँ
दाह खोती
लीन होती हैं ।
  उसी में रवहीन
  तेरा
  गूँजता है छंद :
  ऋत विज्ञप्त होता है ।

एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्त्तियाँ
सब पिघल जातीं
ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत
पुनीत
गहरी नींद की ।
  उसी में से तू
  बढ़ा कर हाथ
  सहसा खींच लेता-
  गले मिलता है ।