Last modified on 3 फ़रवरी 2011, at 05:40

विरासत / श्याम महर्षि

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:40, 3 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= श्याम महर्षि |संग्रह= }}‎ {{KKCatKavita‎}}<poem>गिरवी पड़ा ह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गिरवी पड़ा है खेत
झूमर सेठ का रुक्का
बहन मालती के पीले-हाथ
करने हैं शेष
पड़ोस से मुकदमा
और अनगिनत
आडी-टेडी जिम्मेदारियां
सौंप गए हैं मेरे बाबा ।

याद आती है
बचपन की
वे दिन जब इसी आंगन में
होता था खेलना-कूदना और खिलखिलाना ।
 
बाबा का अपरिमित स्नेह
और बड़ी मां का दुलार
जो मिला इस आंगन में
कब भूला हूं मैं !

अब इस घर में
कहीं दब गई हैं-
गाय-बछड़ों की आवाजें
सुनता हूं मैं
मिल का बेसुरा भोंपू ।
दूध-दही और घी
शौक बन चुके है-
दिल्ली की बड़ी बस्ती के
और मेरे लिए सपना ।

मोहन बाबा के हुक्के की गुड़गुड़ाहट
और रुघे काका से बतियाना उनका
अब कहां सुन सकूंगा इस घर में
जहां सुनाई देती है अब स्टोव की सूंसाट
बाजरे की रोटी की सुगंध
छीन ली किसी ने आंगन से ।

पुस्तैनी घर यह मेरा
बहुत सालों से जो था अपना
बिना उन के लगता है-
बहुत ही पराया ।


अनुवाद : नीरज दइया