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बच्चे / अम्बिका दत्त

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‘‘बच्चे जीवन के फूल होते है’’
- क्या सचमुच, वे होते है एसे ?

निर्दयी होकर पीटती है
दुबली पतली औरत
कमजोर बच्चे को सुबह-ही-सुबह
(किसी भी वजह से: मसलन प्याली फोड़ने पर)
फिर दिन भर कातती है
अपने मन के चरखे पर
लाल ताँबे का तार
घुंडियों पर लिपटता जाता है
नीली, आसमानी, हल्की जामुनी-
आंखों का/कच्चा सूत
अपने दोनों घुटनों के बीच
गोदी में लेकर
अपनी छाती से चिपटा कर
अपने आंचल से रोती है
वह/जार-जार पानी
बच्चे/हुमक-हुमक कर
अपनी माँ के आंसू पीते हैं
क्या सचमुच वे जीवन के फूल होते हैं ?
बच्चे बाग बगीचों, जंगलों में नही उगते
वे हमारे घरों में रहते है
वे ढूँढते है अपने आस पास
अपनी आंखों से सिर्फ अहसास
उनकी सूनी, भोली आंखों से
समझ की पहली सीढ़ी के साथ
बिटर-बिटर ताकती है-असुरक्षा !
वे/अपनी माँ की गोदी में
बिसूर-बिसूर कर रोते हैं
उसके जोड़ों के दर्द की तरह
उनके अहसास की सन्धियों में
भरता जाता है
मां के जोड़ो का दर्द
और आंखों में
अपने बाप की आंखों का मोतियाबिन्द।