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साँस का पुतला / अज्ञेय

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वासना को बाँधने को
तूमड़ी जो स्वर-तार बिछाती है-
आह! उसी में कैसी एकांत निविड़
वासना थरथराती है !
        तभी तो साँप की कुण्डली हिलती नहीं-
         फन डोलता है ।

कभी रात मुझे घेरती है,
कभी मैं दिन को टेरता हूँ,
कभी एक प्रभा मुझे हेरती है,
कभी मैं प्रकाश-कण बिखेरता हूँ।
         कैसे पहचानूँ कब प्राण-स्वर मुखर है,
        कब मन बोलता है ?

साँस का पुतला हूँ मैं :
जरा से बँधा हूँ और
मरण को दे दिया गया हूँ :
पर एक जो प्यार है न, उसी के द्वारा
जीवनमुक्त मैं किया गया हूँ ।
         काल की दुर्वह गदा को एक
         कौतुक-भरा बाल क्षन तोलता है !