हर रोज अल सुबह आ खड़ा होता है वह टैगोर चौक पर
आज भी
लगभग दिहाड़िये
टुर गए हैं
काम पर
फकत दो-एक नत्थुराम
बैठे हैं दिहाड़ियों के नाम पर
सूखा गया है दिन
दरक गया है दिल
धर गोड़ो<ref>घुटनों </ref> पर हाथ उठता
पूछता टैगोर महान से
हर शाम
कि बता दाढ़ी वाले बाबा !
मेरी मां जागती है
या
तारे गिनते-गिनते सो गई ?
किराएदार के लिए
परिवार वाले की बात तो सुनी थी
दिहाड़िए के लिए
यह मांग
तेरे शहर में
कब से हो गई
शब्दार्थ
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