Last modified on 5 फ़रवरी 2011, at 12:41

वासना / भरत ओला

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:41, 5 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हर रोज
अल सुबह
आ खड़ा होता है वह
टैगोर चौक पर

आज भी
लगभग दिहाड़िये
टुर गए हैं
काम पर
फकत दो-एक नत्थुराम
बैठे हैं दिहाड़ियों के नाम पर

सूखा गया है दिन
दरक गया है दिल
धर गोड़ो<ref>घुटनों </ref> पर हाथ उठता
पूछता टैगोर महान से
हर शाम
कि बता दाढ़ी वाले बाबा !
मेरी मां जागती है
या
तारे गिनते-गिनते सो गई ?

किराएदार के लिए
परिवार वाले की बात तो सुनी थी
दिहाड़िए के लिए
यह मांग
तेरे शहर में
कब से हो गई

शब्दार्थ
<references/>