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सपने / दिनेश कुमार शुक्ल

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न फिर माला लगे जपने
तरक मन को तनक अपने

ये सुर्री डाल पर चढ़ कर
हवा में झूमते सपने
पिनक में ऊँधते सपने
ये सपने देखते सपने

कदम की छाँव गहरी है
जहाँ दोपहर ठहरी है
ये जादू है कि जौहर है
लगी लो आँख फिर झपने

चटकता धूप का सरगम
उखड़ता साँस का दमखम
ग़ज़ब लू के थपेड़े हैं
तो आँखें क्यूँ रहें पुरनम ?
बहुत थक कर कहा सबने

तरक मन को तनक-अपने
न फिर माला लगे जपने