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अपराह्न / दिनेश कुमार शुक्ल

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बाढ़ में जैसे कभी-कभी
करवट पलटती हैं नदियाँ
पलटे हम एक-दूसरे की ओर
और बेसाख़्ता
हू-ब-हू एक-सी बात आयी हमारे लबों तक
दोनों आवाज़ों का वज़न भी
राई रत्ती बिल्कुल बराबर था
हार कर हम दोनों हॅंस पड़े एक साथ....

फिर धीरे-धीरे
देर तक
दुपहर बीतती रही....
चिड़िया-चुंगन-बादल-पतंग कहीं कुछ नहीं
एक धूसर-सी लहर तक
नहीं उठी हमारे हृदयाकाश में

दिन का चढ़ता हुआ ज्वार
महानगर की सड़कों पर गरज-तरज
वापस जा चुका था शिराओं में,
मालियों ने ख़त्म की काम की पहली पारी,
नेहरू पार्क के आकाश में उतर कर
हिरनों-सी चार आँखें
चुपचाप छक कर पी रही थीं
जीवन के अपराह्न का उत्कट
निःसंग निष्कपट निषिध्द अमृत

प्रेम की अनश्वर चट्टानों के बीच
क्‌वाँर की वर्षा का थोड़ा-सा जल
अब भी थमा हुआ था
शंखपुष्पी की श्वेत पंखुरियों पर
आकाश की नीलिमा अब झलकने लगी थी...