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अनिश्चय / दिनेश कुमार शुक्ल

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जाने कहाँ से
उड़ती चली आती हैं कथाएँ
कभी घना झीना कभी
बुनता है जीवन अपना वितान

कथाएँ उभरती चली आती हैं
जैसे दुशाले पर बुनकर
भर देता है
पेड़, फूल, हिरन, घर

सम्बन्धों को रोपता है
सींचता है आदमी
अनुराग-विराग की
धूपछाँह
में मन छोड़ता है कभी
कभी गहता है किसी की बाँह

एक राह से फूटती हैं
हज़ार राहें
एक ही गन्तव्य में
छुपे हैं हज़ार गन्तव्य

कठिन है तय कर पाना
अपनी राह, पहचानना
अपना गन्तव्य
इस जगह यूँ ही खड़े-खड़े ।