Last modified on 11 फ़रवरी 2011, at 12:09

द्वंद्व / दिनेश सिंह

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:09, 11 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= दिनेश सिंह |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <Poem> रहते हैं अपने घर …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रहते हैं अपने घर में
उनके घर की कहते हैं

मन नद्दी-नालों में
कितने परनाले बहते हैं

कितना पानी हुआ इकट्ठा
बस्ती में आबादी में
बहकर आया ताल-पोखरे
होकर निर्जन वादी में

बाँह पसारे मिलती धारा
दो तट साधे रहते हैं

बरखा बूँदी के मौसम की
ढीली चालें बढ़ते पग
झोंके बहे खुली पछुआ के
नाव चले डगमग-डगमग

एक हाथ तट की माटी
दूजे से गठरी गहते हैं

पार उतर जाने का सुख
उस पार छूट जाने का गम
पीछे की वह राग-बाँसुरी
आगे लहराते परचम

इन दोनों के बीच अकेले
एक द्वंद्व में दहते हैं