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एक दिन / उपेन्द्र कुमार

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सुबह जागते ही
फड़फड़ाता हुआ
एक कबूतर आ बैठा
मेरे कन्धों पर और बोला-
मैं आज का दिन हूँ
मैं नहीं बता सकता / दिन और कविता
दोनों की शुरुआत में ही
कहाँ से आ गया कबूतर
फिर भी मैंने देखा उसकी ओर / किसी संदेशे के
अंदेसे में

संदेशे तो अब डाकिए लाते हैं
कबूतर तो केवल/फड़फड़ाते हुए
दिन बनकर आते हैं

मैंने सोचा-
कैसा दिन है
नहीं है जिसके पास कुछ भी
कहने के लिए

क्यों, तुम्हारे पास है क्या कुछ
उस दिन से कहने के लिए
पलट कर जबाव आया