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कालजयी / उपेन्द्र कुमार

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ओ मेरे पूर्वज,
अनादि, अनन्त और अविजित
काल की निरन्तर प्रवाहमान धाराओं में बहकर
बहुत कुछ तुम्हारा
आया है, आता है, पास मेरे

तुम्हारे लिए हुए अनेक क्षण
ठीक वैसे के वैसे ही
बहते हुए आते हैं मेरे पास
मैं इस प्रवाह से अपनी अंजुरी भरता हूँ
आचमन करता हूँ
और फिर पाता हूँ
तुम्हारे क्षणों के साथ, मेरे कुछ क्षण मिलकर
बहते जा रहे हैं, प्रवाह के साथ, आगे ओर आगे
पता नहीं कौन-कौन लोग
अपनी अंजुरी भरेंगे, आचमन करेंगे
हर तरफ बिखरी इस भीड़ और शोर के बावजूद, ओ, मनु
सृष्टि के आरम्भ का
एकान्त और अकेलापन जो तुमने जिया था
मुझ तक आता है, मेरे चारों ओर मँडराता है, पसरता है

तुम्हारा प्रसाद समझ
अंजुरी में भरता हूँ
मैं भी उसे जीता हूँ
पर इस संक्रमण युग में
समझ नहीं पाता, कालजयी क्या है
सृष्टि के आरम्भ का वह अकेलापन
या
तुम्हारा उसे जीना