Last modified on 11 फ़रवरी 2011, at 19:31

मैगनेट / शकुन्त माथुर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:31, 11 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शकुन्त माथुर |संग्रह=लहर नहीं टूटेगी / शकुन्त म…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैंने तुझ पर विश्वास किया था
मैंने तुझ से विश्वास के कारण
भीख माँगी थी
मैं गिड़गिड़ाई थी-
और वह युवा
सफ़ेद चादर ओढ़ कर सोया था
एक पूरी दुनिया भटक कर
स्पेस में गड़गड़ाती हुई चली गई थी

तू ईश्वर था
और भाग्य तुझसे ज़्यादा
शक्तिशाली लगा था
उसी दिन से मैंने
आँखों में दृष्टि की जगह
संगमरमरी पत्थर भर लिए थे
और अब तू क्या कहता है--

आज की अंधी सड़कों पर
जगमगाते
इच्छाओं के बंद गुम्बदों पर
बुझे पर सुरक्षित बिलों पर
बासी घरों और
ताज़ी दुकानों में
मैं देखती हूँ
मैं तेरा पीछा कर रही हूँ
आज जो खड्डों में भरे हैं

धोखेबाज़ बादल
ये खाइयों को पाटती हुई बरफ़
कभीऒ भी पानी बनकर
लील लेने को जमी है,
झूठ और सच
दुख और सुख
मन और शरीर के टूट जाने पर
बार-बार धक्का खा कर भी
धोखा खाने पर भी
तेरे विश्वास का नंगा ज़िस्म
मुझसे लिपटता रहता है
और उसको बार-बार हटा देने पर भी
फिर मैं
उसी से जा चिपकती हूँ

मुझे गुस्सा आया
और मैंने कुदाल से सारी ज़मीन
खोद डाली
और उसमें ज़हर भरे टुकड़े को
सी दिया
मुझसे भी पहले
ऐसे गड्ढों में बैठने वाले लोग थे
दया क गड्ढा
ईमानदारी
सचाई का गड्ढा
इसमें जो बैठ जाता है
वह निकल नहीं सकता
मैंने जबपनी जेबें टटोली
तुझे रहम करने का
वक़्त नहीं था
तू ईश्वर था
तू ईश्वर था !