Last modified on 23 फ़रवरी 2011, at 22:32

कालानमक / गणेश पाण्डेय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:32, 23 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गणेश पाण्डेय |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> दादा के हैं ये …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दादा के हैं ये खेत
दादा कहते थे
उनके दादा के हैं
जाने कितने परदादाओं के हैं
ये खेत
गाँव के सबसे अच्छे
जड़हनिया खेत
बरस जाए ज़रा-सा पानी
तो लग जाता है काम भर का
और
समय से मिल जाए पानी
तो झूम उठती हैं
छाती से भी ऊँची-ऊँची
काले धान की बालियाँ
जिसे देख फूल जाती है
दादा के नाती-पोतों की छातियाँ
स्वस्थ बालियों के भीतर
देख-देखकर
कालानमक चावल के
सफेद हँसमुख दाने
खिलखिला उठते हैं
उनके दाँत

दादा के परदादा कहते थे
शुद्धोदन काका के भात से
अधिक गमकता था
हमारे चूल्हे का भात
हमारा कालानमक चावल
काका के बेटे के
मशहूर होने से पहले
दूर-दूर तक जाना जाता था
जाना तो अब भी जाता है
लेकिन
उसकी ख़ुशबू को
किसी की नज़र लग गई है
उपज घट गई है
काले नमक की डली से
अधिक मोहक
और गुड़ से अधिक मीठे
दादाओं के दुलारे
कालानमक धान की ऐसी अनदेखी
कपिलवस्तु में
इससे पहले कभी न हुई थी
इसी के भात ने उपजाया था
सिद्धार्थ में वेदना का विवेक
इसी ने किया था
यशोधरा को मुग्ध
राहुल को इसी से मिला था
बल
इसी ने बनाया था मुझे कवि
मृत्युशैया पर लेटे
इस जीवनदाता को
प्रणाम ।