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स्वर्ग रचना / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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मुझको यह विष पी-पी कर
अमृत करना ही होगा ।
इसी नरक को शुचि कर
मुझको, स्वर्ग विरचना ही होगा
भूली भटकी हुई
नदी को भी सागर के पद पर जाकर
अपना सारा जीवन
अर्पित करना ही होगा
मेरे उर का सोना
जो है दबा हुआ मिट्टी में
उसे निकल बाहर ज्वाला में
पिघल चमकना ही होगा
मुझको यह विष पी-पी कर
अमृत करना ही होगा