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विनयावली(राग ललित ) / तुलसीदास

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विनयावली(राग ललित )
(76)

खेाटेा खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी।

करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि,
पानी परे सनकी।।

दूसरो , भरोसो नहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि,
सुर-नर-मुनिगनकी।।
 
स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर,
रघुबीर!दीन जनकी।।
 
साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै,
आगे ही या तनकी।

साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
राम स्यामघन की।।