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चाँदनी सिसकी / हरीश निगम

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रात भर जागे
सिरहाने नींद धर के।

एक पल को भी नहीं
पतझड़ थमा
आँख में होते रहे
बीहड़ जमा

याद ने किस्से सुनाए
खंडहर के।

चाँदनी सिसकी
कोई सपना दुखा
सिलसिला हम पर
खरोंचों का झुका

लग रहा,
आए बबूलों से गुज़र के।