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ध्वन्यालोकी प्रियंवदाएँ / धनंजय सिंह

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आकुलता को
नए-नए आयाम दे दिए
मन के
आसपास महकाकर मधु-गंधाएँ

एक शब्द के लिए
गीत का
ताना-बाना कौन बुनेगा
बुन भी लें तो
मनोयोग से
रुदन हमारा कौन सुनेगा

यों तो
छंदों में रोने की
रीत पुरानी
पर अपनी भी
नई कहाँ है
राम कहानी

दुर्बलताएँ
मन को पहले ही घेरे थीं
इस पर भी
जादू रच बैठीं मधु-छंदाएँ

पीड़ा के
छांदोग्य भाष्य का
अनुभव पर्व लिखा जब मैंने
क्रोंच-मिथुन
या हंस सभी के
गए रुलाकर घायल डैने
दुख-दर्दों से
रहे हमारे
जनम-जनम के रिश्ते-नाते
फिर भी गीत
व्रती होकर हम
गाते तो पंचम में गाते

फिर स्वर को
यों कील न पातीं
ध्वन्यालोकी प्रियम्वदाएँ