Last modified on 16 मार्च 2011, at 12:02

कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 1


ऊँ श्रीसीतारामाभ्यां नमः

रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप।

हरि-हर- अज- वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप।1।

बालकेलि दशरथ -अजिर, करत सेा फिरत सभाय।

पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि विरवत तिलक बनाय।2।

अनिल सुवन पदपद्यम्रज, प्रेमसहित शिर धार।

इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार।3।

बन्दौं श्रीतुलसीचरन नख, अनूप दुतिमाल।

कवितावलि-टीका लसै कवितावलि-वरभाल।4।


(बालरूप की झाँकी)


 श्री अवधेसके द्वारें सकारंे गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।

अवलोकि हौं सोच बिमोचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से।।

तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।।

सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरूह -से बिकसे।1।


पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।

नवनीत कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ।

अरबिंदु सेा आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन -भृंग पिएँ।

मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ।2।


तनकी दुति स्याम सरोरूह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।

अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दुरि धरैं।

दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यों किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।

अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन -मंदिरमें बिहरैं।3।