Last modified on 17 मार्च 2011, at 14:28

दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 39

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:28, 17 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=द…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दोहा संख्या 380 से 390

कै निदरहुँ कै आदरहुँ सिंघहि स्वान सिआर।
 हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर गंजनिहार।381।
 
ठाढ़ो द्वार न दै सकैं तुलसी जे नर नीच।
निंदहिं बलि हरिचंद को का कियो करन दधीच।382।

ईस सीस बिलसत बिमल तुलसी तरल तरंग।
स्वान सरावग के कहें लधुता लहै न गंग।383।

तुलसी देवल देव को लागे लाख करोरि।
काक अभागें हगि भर्यो महिमा भई कि थोरि।384।

निज गुन घटत नाग नग परखि परिहरत कोल।
तुलसी प्र्रभु भूषन किए गुंजा बढ़े न मोल।।385।

राकापति षोड़स उअहिं तारा गन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ।386।

भलो कहहिं बिनु जानेहूँ बिनु जानेहूँ बिनु जानें अपबाद।
 ते नर गादुर जानि जियँ कहिय न हरष बिषाद।387।

पर सुख संपति देखि सुनि जरहिं जे बड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भागते चलै भलाई भागि।388।

तुलसी जे कीरति चहहिं पर की कीरति खोइ।
तिनके मुँह मसि लागिहैं मिटहि न मरिहै धोइ।389।

तनु गुन धन महिमा धरम तेहि बिनु जेहि अभिमान।
तुलसी जिअत बिडंबना परिनामहु गत जान।।390।