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कुछ पंक्तियाँ / असद ज़ैदी

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गिरते गिरते गिरते आख़िरश हम हो जाते हैं घास

अपनी कमर तक उठकर गिरती हुई चरागाह में एक दिन

टीलों पर झण्डियाँ दिखाती प्रतीक्षा करती है हवा


छोटी सी सूचना छपाकर पत्थर लुढ़कते हैं

बेख़बर लोगों में हैरानी मचाते हुए : हैराँ अख़बार को

आना पड़ता है इन्हीं टीलों तक सड़कों पर धूल में

निर्विकार हो जाना होता है

इतवारी संस्करणों के लेखक बार बार करते हैं

पेड़ों की शहादत में गुनाहों का इक़बाल


ज़मीन में घुसकर तमाम खदानें चर जाने के बाद

शान्ति उगती है पृथ्वी पर घास बन कर