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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 18

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(लंकादहन-1 )

देखि ज्वालजालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,

कह्यो धरो धरो, धाए बीर बलवान हैं।

लिएँ सूल-सेल, पास-परिध, प्रचंड दंड,
 
भोजन सनीर, धीर धरें धनु -बान हैं।
 
 ‘तुलसी ’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
 
जातुधान पुंगीफल जव तिल धान है।

स्त्रुवा सो लँगूल , बलमूल प्रतिकूल हबि,

स्वाहा महा हाँकि हाँकि हुनैं हनुमान हैं।7।


गाज्यो कपि गाज ज्यों , बिराज्यो ज्वालजालजुत,

भाजे बीर धीर, अकुलाइ उठ्यो रावनो।

धावौं , धावौ, धरौ, सुनि धाए जातुधान धारि,

 बारिधारा उलदै जलदु जौन सावनो।।

लपट झपट झहराने, हहराने बात,

भहराने भट, पर्यो प्रबल परावनो।।

 ढकनि ढकेलि, पेलि सचिव चले लै ठेलि,

नाथ! न चलैगो बलु, अनलु भयावनो।8।


बडो़ बिकराल बेषु देखि, सुनि सिंघनादु,

उठ्यो मेघनादु, सबिषाद कहै रावनो।

 बेग जित्यो मारूत, प्रताप मारतंड कोटि,
 
कालऊ करालताँ, बड़ाई जित्यो बावनो।।

‘तुलसी’ सयाने जातुधान पछिताने कहैं,

 जाको ऐसो दूतु, सो तो साहेबु अबै आवनो।।

काहेको कुसल रोषें राम बामदेवहू की,

बिषम बलीसों बादि बैरको बढ़ावनो।9।


पानी!पानी! पानी! स्ब रानी अकुलानी कहैं,
 
जाति हैं परानी, गति जानी गजचालि है।

बसन बिसारै, मनिभूषन सँभारत न,
 
आनन सुखाने , कहै , क्योंहू कोऊ पालिहै।।

‘तुलसी’ मँदोवै मीजि हाथ, धुनि माथ कहै,

काहूँ कान कियो न, मैं कह्यो केतो कालि है।

बापुरें बिभीषन पुकारि बार बार कह्यो,

बानरू बड़ी बलाइ घने घर घालिहै।10।