रोज-रोज
व्यूह भेदन के लिए
निकलता है घर से
अभिमन्यु-
अपने ही अभावों
पीड़ा व कुण्ठाओं से
त्रस्त हुआ
संकल्प करता है
महारथियों से जूझने का,
किन्तु दतर दर दतर
ठोकरें खाता हुआ
टपने सपनों के बल
यथार्थ को झुठलाता हुआ
लौट आता है संध्या को
अपने घर,
उस महाभारत को
लड़ते-लड़ते
जो उस पर थोंप दिया गया है
अभिमन्यु ने
जूझते-जूझते वीरगति पाई थी
लेकिन क्या वह
उसकी आखिरी लड़ाई थी,
नहीं, वह लड़ रहा है!
नहीं, वह और लड़ेगा!
जब तक
युद्धोन्मादी महारथियों का
उन्माद नहीं झड़ेगा!