Last modified on 1 अप्रैल 2011, at 01:01

शिशिर / बरीस पास्तेरनाक

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:01, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैंने अपने परिवार को बिखर जाने दिया
अपने नन्हे-मुन्नों को
तितर-बितर हो जाने दिया
एक आजीवन अकेलापन छाया है
प्रकृति में और हृदय में ।

और मैं यहाँ तुम्हारे साथ हूँ
एक छोटे घर में
बाहर है निर्जन वन रेगिस्तान-सा
मोड़ और फ़ुटपाथ ऊबड़-खाबड़ हो गए हैं
जो हैं, गीत मैं भी
लकड़ी की दीवारें उदास हैं ।
टकटकी लगाकर देखनेवालों में
मात्र हम दोनों को पाकर ।

लेकिन इन लोगों ने इन व्यवधानों को हटाने की
कभी नहीं ठानी ।
हम शेष हो जाएँगे ईमानदारी से यहीं ।

एक बजे रात को हम
खाने की मेज़ पर बैठेंगे
और उठ जाएँगे तीन बजे--
मैं अपनी क़िताब के साथ
और तुम अपने कशीदे के संग ।
सुबह हम याद नहीं रख पाएँगे
कब रुक गए थे हम
चूमते-चूमते एक-दूसरे को ।

मर्मरित और कंपित होंगे पीले दाँत
और भी उद्दीप्तता से
और भी लापरवाही से
और विगत कल की तिक्तता वाले प्याले में
भर देंगे और अधिक आज के दुख-दर्द ।

आदर, आकांक्षा और आनंदातिरेक को
बिखर जाने दो सितम्बर के कोलाहल में
और तुम जाकर छिप जाओ
शिशिर के उद्दाम उन्मेष में ।
चुप हो जाओ या हो जाओ उन्मत्त हवा में
तुम फेंक दो अपने परिधान अपने अंग से
जैसे त्याग देते वृक्ष अपने पात
और रेशमी किनारी वाले ड्रेसिंग-गाउन में
तुम समर्पित हो जाओ मेरी बाँहों में ।

तुम होती हो एक ख़ूबसूरत भेंट
उस पथ की जो पहुँचा देता है विनाश तक
जब ज़िन्दगी रोग से अधिक
बीमार हो जाती है लिद-खिद कर ।
सौन्दर्य का मूल, जो दॄढ़ता है
यहीं खींच लाती है
हम दोनों को एक-दूसरे के पास ।

अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह