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वृक्ष की मौत पर / तरुण भटनागर

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वह मिटा,
कि मेरा घर आंगन,
यतीम, गुमनाम बना।

तपी न था कोई,
तभी तो नहीं बना,
वह बोधि वृक्ष।
पर वह,
कड़वा नीम आंगन वाला,
अब चिपका है,
मेरी स्मृति दीवार पर,
जैसे फिल्म वाला पोस्टर।
पोस्टर पर है,
कुछ अधूरे चित्र,
युद्ध में,
बमवषर्कों की सूचना देने वाले,
सायरन की तरह,
सहमा देने वाले।

सूखी डाल पर कोंपल-गीला नव शिशु
पतझर-झाड़ते, झड़ते पल,
मेरा मन-शायद उसकी पुचकार,
भीतर की सूनी-डाल पर गीत सीखती चिडि़या,
मेरी नींद-हवा में उसकी झूमती डालियां,
मस्तक पर टीका-उच्च होकर उसका टेकना आकाश,
सलेटी शाम-उसका चमकता बोरला,
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मैंने नहीं छोड़ीं,
उस दधीचि की हिडडयां
निविर्कार भिक्षा मुझे,
जाने कब लड़ना पड़े,
धूप से।
पर,
किसको पड़ी,
तुम जो नहीं अमेजन के जंगल।
बस एक न ढलने वाला शून्य रह गया है।
जो अकस्मात,
भुला देता है,
आैर मैं सोच पड़ता हंू,
शायद पसरी हों,
आंगन में तेरी छांव,
आैर मैं,
बैठूंगा उसमें,
रोज सुबह की तरह,
पढ़ने अखबार।