Last modified on 12 अप्रैल 2011, at 11:47

विश्वास / मीना अग्रवाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:47, 12 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मीना अग्रवाल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> तुम किसी को कुछ …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम किसी को कुछ भी कहो
किसी को डाँटो, प्यार करो
पर मैं कुछ न बोलूँ
मुँह न खोलूँ
और बोलने से पहले स्वयं को तोलूँ
फिर कैसे जीऊँ !
समाज की असंगतियाँ और विसंगतियाँ
कब होंगी समाप्त
कब मिलेगा समान रूप से
जीने का अधिकार,
रेत होता अस्तित्व
कब लेगा सुंदर आकार
किसी साकार कलाकृति का !
इसी आशा में, इसी प्रत्याशा में
जी रही है आज की नारी
कि कोई तो कल आएगा
जो देगा ठंडक मन को,
काँटों में फूल खिलाएगा
देगा हिम्मत तन-मन को,
खुशियों से महकाएगा
जीवन को !
जागेगी तन में आस,
जीने की प्यास और जगाएगा मन में विश्वास !
पूरा है भरोसा और पूरी है आस्था
कि वह अनोखा
एक दिन अवश्य आएगा !