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महत्त्वाकांक्षा / मीना अग्रवाल

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जेल में अस्पताल
अस्पताल में बिछे सौ बिस्तर
सभी सौ क़ैदी
बँधे हैं अपने-अपने बिस्तर से !
पहले बिस्तर का कैदी
ख़ुश, बहुत ख़ुश
उसे दिखाई दे रहा है सुबह का सूरज,
उसे दिखाई दे रहा है खिला जूही का फूल,
उसे दिखाई दे रही है आकाश में फैली चाँदनी,
और उसे दिखाई दे रहा है पूर्णिमा का चमकता चाँद,
सभी निन्यानवे कैदी परेशान
उन्हें नहीं दिखाई दे रही है सुबह के सूरज की लालिमा,
जूही का खिला हुआ फूल,
और रात में चमकता हुआ पूर्णिमा का चाँद,
आकाश में बिखरी चाँदनी
या फिर टिमटिमाते तारे,
हरेक के हृदय में उठती है टीस
नंबर एक पर पहुँचने की !
पर सब लाचार,
जीवन की दौड़ में पिछड़े, हताश
करते हैं प्रार्थना ईश्वर से
कि नंबर एक का क़ैदी
जल्दी ही सिधारे परलोक
और वह पहुँचे नंबर एक पर
नंबर दो की विनती
हुई स्वीकार
और जब वह पहुँचा
नंबर एक की खाट पर
न उसे दिखाई दिया सूरज,
न उसकी लालिमा,
न जूही का खिला फूल,
न नरगिस का पौधा,
न रात की रानी,
न चाँदनी, न आकाश में चमकता चाँद,
और न टिमटिमाते तारे,
न महसूस हुई
फूलों की मीठी सुगंध,
न जाने कहाँ खो गया
जीवन का सार।
उसे तो बस दिखाई दिया
जेल का मज़बूत दरवाज़ा
और जेल के परकोटे की ऊँची और चौड़ी दीवार,
वह हैरान
क्या कहे दूसरे साथियों से,
यदि कुछ कहा
तो सब हँसेंगे उस पर
और कहेंगे कि
हम तो पहले ही जानते थे कि ऐसा ही होगा।

इसलिए उसने लौटकर
मुस्कुराते हुए बस यही कहा-- अब तक का
सारा जीवन तो व्यर्थ गया,
बाहर कितने सुंदर
गुलमोहर के फूल खिले हैं,
खुला आकाश है,
पक्षी उड़ रहे हैं,
उनके मीठे गीत
कानों में रस घोल रहे हैं,
उसने बात की फूलों की,
उनकी ख़ुशबू की, चंदनी चाँदनी की
चाँद-तारों की और खिलते सूरज की,
जीवन और असफलता को
स्वीकार करना उसने कभी सीखा ही नहीं ।
ऐसा इस संसार की जेल के
अस्पताल में होता है रोज़-रोज़,
पहला मरता है
और दूसरा पहुँचता है नंबर एक की शैया पर,
वह भी पहले की ही भाँति बोलता है और झेलता है
उसी त्रास को
उसी पीड़ा
और उसी संताप को,
जो पहले ने झेली थी !
पंक्ति के पीछे के लोग
दौड़ से भर जाते हैं,
वे भी पहुँचना चाहते हैं
नंबर एक पर,
बच्चे भी बूढों के समान
दौड़ने लगते हैं,
यही है मनुष्य की
महत्त्वाकांक्षा
यही है जीवन की आशा
यही है जीवन की परिभाषा ।
महत्त्वाकांक्षा की इस दौड़ में
न शांति है, न क्रांति न आराम है,
न विश्रांति न आनंद है, न परमानंद
ऐसे में जीवन की वीणा
हो जाती है मूक,
क्योंकि नहीं उठती है हृदय में
झंकृत होने की कोई हूक !