मैं जूझ रहा चट्टानों से अपने मन की
पड़ रहीं अनवरत चॊटें जीवन के घन की
हो उठे प्राण उद्दीप्त एक अभिलाषा से
है चाह न मुझको आज किसी आश्वासन की ।
(1945 में अहमदाबाद में रचित)
मैं जूझ रहा चट्टानों से अपने मन की
पड़ रहीं अनवरत चॊटें जीवन के घन की
हो उठे प्राण उद्दीप्त एक अभिलाषा से
है चाह न मुझको आज किसी आश्वासन की ।
(1945 में अहमदाबाद में रचित)