और नहीं, बस, और नहीं, ग़म के प्याले और नहीं
दिल में जगह नहीं बाक़ी, रोक नज़र अपनी साकी
और नहीं, बस, और नहीं, ग़म के प्याले और नहीं...
सपने नहीं यहाँ तेरे, अपने नहीं यहाँ तेरे
सच्चाई का मोल नहीं, चुप हो जा कुछ बोल नहीं
प्यार-प्रीत चिल्लाएगा तो अपना गला गँवाएगा
पत्थर रख ले सीने पर क़समें खा ले जीने पर
ग़ौर नहीं है, ग़ौर नहीं, परवानों पर ग़ौर नहीं
आँसू-आँसू ढलते हैं, अँगारों पर चलते हैं
और नहीं, बस, और नहीं, ग़म के प्याले और नहीं...
कितना पढ़ूँ ज़माने को, कितना गढ़ूँ ज़माने को
कौन गुणों को गिनता है, कौन दुखों को चुनता है
हमदर्दी काफ़ूर हुई, नेकी चकनाचूर हुई
जी करता बस, खो जाऊँ, कफ़न ओढ़ कर सो जाऊँ
दौर नहीं, ये दौर नहीं, इंसानों का दौर नहीं
फ़र्ज़ यहाँ पर फ़रजी है, असली तो बस ख़ुदगर्ज़ी है
और नहीं, बस, और नहीं, ग़म के प्याले और नहीं...
बीमार हो गई दुनिया, बेकार हो गई दुनिया
मरने लगी शरम अब तो, बिकने लगे सनम अब तो
ये रात है नज़ारों की, ग़ैरों के साथ यारों की
तो डीहें बिगाड़ दूँ सारी, दुनिया उजाड़ दूँ सारी
ज़ोर नहीं है, ज़ोर नहीं, दिल पे किसी का ज़ोर नहीं
कोई आग मचल जाए तो सारा आलम जल जाए
और नहीं, बस, और नहीं, ग़म के प्याले और नहीं...
फ़िल्म : रोटी, कपड़ा और मकान (1974)