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ऎसा आदमी था मैं / असद ज़ैदी

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ऎसा आदमी था मैं कि हॊंठ नहीं थे

बोल नहीं सकता था जो सोचता था

कि अन्दर ही अन्दर ख़ुश रहता था

और चुपचाप रोता था


मैं जानता था कि होंठ नहीं थे मैंने प्यार किया

और सँभल-सँभल कर लिए फ़ैसले ठीक नहीं थे

फिर सोचा ठीक है यह भी


दहशत भरे दौर गुज़रे होंठ नहीं थे

जिन्हें जाना था उठकर जा चुके मैं बोला तक नहीं

मेरे रोंगटे अभी तक खड़े हैं ऎसी थी दारुण प्यास