हरि सौं बूझति रुकमिनि इनमैं को बृषभानु किसोरी ।
बारक हमै दिखावहु अपने, बालापन की जोरी ॥
जाकौ हेत निरंतर लीन्हे, डोलत ब्रज की खोरी ।
अति आतुर ह्वै गाइ दुहावन, जाते पर-घर चोरी ॥
रचते सेज स्वकर सुमननि की, नव-पल्लव पुट तोरी ।
बिन देखैं ताके मन तरसै, छिन बीतै जुग कोरी ॥
सूर सोच सुख करि भरि लोचन, अंतर प्रीति न थोरी ।
सिथिल गात मुख बचन नहिं, ह्वै , जु गई मति भोरी ॥1॥
बूजति है रुकमनि हिय इनमैं को बृषभानु किसोरी ।
नैंकु हमैं दिखरावहु अपनी बालापन की जोरी ॥
परम चतुर जिन कीन्हे मोहन, अल्प बैस ही थोरी ।
बारे तै जिहिं यहै पढ़यौ, बुधि बल कल बिधि चोरी ।
जाके गुन गनि ग्रंथित माला, कबहुँ न उर तैं छोरी ।
मनसा सुमिरन, रूप ध्यान उर, दृष्टि न इत उत मोरी ।
वह लखि-जुवति वृंदा मैं ठाढ़ी, नील बसन तन गोरी ।
सूरदास मेरौ मन वाकी, चितवनि बंक हर्यौ री ॥2॥
रुकमिनि राधा ऐसैं भेंटी ।
जैसैं बहुत दिननि की बिछुरी, एक बाप की बेटी ॥
एक सुभाव एक वय दोऊ दोऊ हरि कौं प्यारी ।
एक प्रान मन एक दुहुनि कौ, तन करि दीसति न्यारी ॥
निज मंदिर लै गई रुकमिनी, पहनाई बिधि ठानी ।
सूरदास प्रभु तहँ पग धारे, जहँ दोऊ ठकुरानी ॥3॥
हरि जू इते दिन कहाँ लगाए ।
तबहि अवधि मैं कहत न समुझी, गनत अचानक आए ॥
भली करी जु बहुरि इन नैननि, सुंदर दरस दिखाए ।
जानी कृपा राज काजहु हम, निमिष नहीं बिसराए ॥
बिरहिनि बिकल बिलोकि सूर, प्रभु, धाइ हृदै करि लाए ।
कछु इक सारथि सौं कहि पठयौ, रथ के तुरँग छुड़ाए ॥4॥
हरि जू वै सुख बहुरि कहाँ ।
जदपि नैन निरखत वह मूरति, फिरि मन जात तहाँ ?
मुख मुरली सिर मौर पखौवा, गर घुँघचिनि कौ।
आगैं धेनु तन मंडित, तिरछी चितवनि चार ॥
राति दिवस सब सखा लिए सँग, हँसि मिलि खेलत खात ।
सूरदास प्रभु इत उत चितवत, कहि न सकत कछु बात ।5॥
राधा माधव भेंट भई ।
राधा माधव, माधव राधा,कीट भृंग गति ह्वैं जु गई ॥
माधव राधा के रँग राँचे, राधा माधव रंग रई ।
माधव राधा प्रीति निरंतर, रसना करि सो कहि न गई ।
बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहिकै उन ब्रज पठई ॥
सूरदास प्रभु राधा माधव, ब्रज-बिहार नित नई नई ॥6॥