Last modified on 18 अप्रैल 2011, at 20:17

कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात / सूरदास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:17, 18 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

राग नट

कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात ।
लै-लै लकुट कठिन कर अपनै परसत कोमल गात ॥
दैखत आँसू गिरत नैन तैं यौं सोभित ढरि जात ।
मुक्ता मनौ चुगत खग खंजन, चोंच-पुटी न समात ॥
डरनि लोल डोलत हैं इहि बिधि, निरखि भ्रुवनि सुनि बात ॥
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥

भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं--कन्हैया पर इतना रोष करते (मैया!) तुमसे बनता कैसे है, जो अपने कठोर हाथ में बार-बार छड़ी लेकर इसके कोमल शरीर का स्पर्श कर रही हो (इसे मारती हो)! देखती हो इसकी आँखों से गिरते हुए आँसू ढुलकते हुए ऐसे शोभित होते हैं मानो खञ्जन पक्षी मोती चुग रहे हैं, परंतु वे उनके चञ्चु-पुट में समाते नहीं (बार-बार गिर पड़ते हैं ) मेरी बात सुनो । भौंहों की ओर देखो! भय से चञ्चल हुए ये इस प्रकार हिल रहे हैं मानो उड़ जाने को व्याकुल हो रहे हैं, किंतु (भ्रूरूपी) धनुष को देखकर शंकित हो रहे हैं ।