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मेरो कान्ह कमलदललोचन / सूरदास

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राग सोरठ

मेरो कान्ह कमलदललोचन।
अब की बेर बहुरि फिरि आवहु, कहा लगे जिय सोचन॥
यह लालसा होति हिय मेरे, बैठी देखति रैहौं॥
गाइ चरावन कान्ह कुंवर सों भूलि न कबहूं कैहौं॥
करत अन्याय न कबहुं बरजिहौं, अरु माखन की चोरी।
अपने जियत नैन भरि देखौं, हरि हलधर की जोरी॥
एक बेर ह्वै जाहु यहां लौं, मेरे ललन कन्हैया।
चारि दिवसहीं पहुनई कीजौ, तलफति तेरी मैया॥

भावार्थ :- `करत....चोरी,' शायद तुम इसलिए रूठकर मथुरा में जाकर बस गए हो कि मैंने तुम्हें कभी-कभी डांटा था। सो अब कभी नहीं डांटूंगी। कितना ही तुम ऊधम करो, कभी रोकूंगी नहीं। माखन-चोरी के लिए भी अब तुम्हारी छूट रहेगी। अब तो सब ठीक है न। तो फिर चले आओ न, मेरे लाल। `रैहौं....कैहौं, ये दोनों बुन्देलखंडी बोली के प्रयोग हैं।

शब्दार्थ :- कमलदललोचन =कमल पत्र के समान नेत्र हैं जिनके। बेर =बार। रैहौं =रहूंगी। कहौं =कहूंगी। अन्याय =उत्पात,ऊधम। बरजिहौं =रोकूंगी। जोरी =जोड़ी। पहुनइ = मेहमानी।